मंगलवार, 20 अगस्त 2013

acharya tulsi



The King Of Heart





 इस संसार में सुपरमैन बन कर कोर्इ भी मनुष्य जन्म नहीं लेता, बलिक अपनी बौद्धिक क्षमता, वैचारिक बल एंव प्रबल साहस से किसी भी मुकाम को हासिल कर सकता है। केवल मान्यताओं, परम्पराओं तथा आदर्शों की लकीर पर चलकर नये पदचिन्ह अंकित नहीं किये जा सकते। उसके लिए चाहिये साहस की पराकाष्ठा, जिसके जरिये उन्नत लक्ष्य प्राप्त करने हेतु आकाशीय उड़ान भरीजा सकती है। 'साहस वह बेहतरीन मानसिक औषधि है, जो आशा का संचार कर विश्वास को मुखर बना सकती है। वक्त के भाल पर अमिट निशान बनाते हुए प्रकाश स्तम्भ की तरह मार्ग प्रशस्त करने वाला टानिक साहस ही तो है। साहसी इंसान के शब्दकोश में 'असंभव शब्द नहीं होता! इतिहास गवाह है कि नेपोलियन बोनापार्ट के सैनिकों ने एल्प्स के बर्फीले पहाड़ो की दुर्गम चोटियों को इसीबल से लांघा था। राम की वानर सेना ने सागर पर पुल बना रावण को परास्त किया था। वास्तव में 'साहस वह आन्तरिक शकित है, जो नये दर्शन और चिंतन द्वारा इंसान को बुलनिदयों तक पहँुचा देती है।
                     महानता के शिखर पुरूषों की श्रृंखला में अध्यात्म-जगत को गौरवानिवत करने पाले एक युगपुरूष का नाम है - आचार्य तुलसी। जिन्होंने अपनी साहसिक चेतना से अवसर को पहचान कर युग को वो तोहफे दिये, जिन्हें किसी भौतिक पदार्थों से आंका नहीं जा सकता। उन्होंने आत्मदर्पण में झांक कर युगीत समस्याओं को निहारा और उन्हें अवदानों द्वारा समाहित कर दुनिया का उद्धार किया। पुरूषार्थ में दृढ़आस्था, चरणों में गतिशीलता एवं चरित्र की उज्ज्वलता ने उन्हें साहस का सुमेरू बना दिया। यही कारण था कि उन्होंने अपने अमाप्य साहस, अतुल मनोबल एवं प्रगाढ़ आत्मविश्वास से अनेक अमर पगडंडियों का सृजन कर दिया, जिन पर चलकर मानव मात्र को युगों-युगों तक त्राण मिलता रहेगा! इतिहास साक्षी है कि वह महापुरूष कभी थमा नहीं, रुका नहीं, अपितु नित नर्इ कल्पनाओं तथा उध्र्वमुखी चिंतन को मूत्र्त रुप देने हेतु जीवन पर्यंत जुटा रहा।
                            साहसी व्यकितत्व उम्र का मोहताज नहीं होता, इसे चरितार्थ किया आचार्य श्री तुलसी ने। मात्र ग्यारह वर्ष की अल्पायु में कठोर साधना के मार्ग को अंगीकरण किया। इससे पूर्व संयम जीवन को मूत्र्त रुप देने हेतु दो भीषण प्रतिज्ञाएं स्वीकार करना, साहस की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है। प्रतिज्ञाएं थी- 1. मैं आजीवन व्यापारार्थ प्रदेश नहीं जाऊगां। 2. मैं विवाह के बंधन से मुक्त रहुंगा। यह कल्पना से बाहर की बात है कि एक ग्यारह वर्ष का बालक जीवन भर के लिए ऐसे कठोर संकल्पों को स्वीकार करे। वास्तव में यह साहस भरा जादूर्इ करिश्मा ही था। 'साहस कोर्इ आकाश से टपकने वाला रस नहीं, भीतर से उदभूत सकारात्मक ऊर्जा है। जिसने उसका उपयोग किया, वह देवतुल्य पूजनीय बन गया। आचार्य श्री तुलसी इसके मूत्र्त रुप थे। तेरापंथ धर्मसंघ के नवम अधिशास्ता ने अपने क्रांतिकारी कदमोें से संपूर्ण भारत की यात्रा की। जन-जन से संपर्क कर ज्ञान का प्रकाश बांटा। यही वह मसीहा थे, जिन्होंने अपने जीवन के अनमोल पलों को समषिट के लिए समर्पित कर दिया। यही कारण था कि श्रम, साधना, शिक्षा, कल, सेवा, जनसंपर्क एवं कुशल व्यकितत्वों का निर्माण करना उनके जीवन का पर्याय रहा।
आचार्य तुलसी की बेजोड़ कार्यक्षमता और आत्मविश्वास से सरजें कार्यों को देख-सुनकर लोगों ने दाँतों तले अंगुली दबार्इ। यह सत्य है कि उन्होंने स्वयं की शकित को मात्र पहचाना ही नहीं, उसका भरपूर उपयोग भी किया। विविध अवदानों को दुनियां के समक्ष प्रस्तुत कर मार्ग प्रशस्त किया। उनकी जीवन यात्रा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव, जो साहस की गाथा का व्याख्यान करते नजर आते हैं। मात्र सोलह वर्ष की उम्र में अपने गुरू कालूगणी का इतना विश्वास अर्जित किया, कि प्रशिक्षक बना दिया। बार्इस वर्ष में तेरापंथ धर्म संघ के अनुशास्ता बने। आचार्य प्रवर का प्रथम चातुर्मास बीकानेर में सम्पन्न हुआ। मंगल विहार में जन-सैलाब उमड़ पड़ा। अचानक अन्य सम्प्रदाय का जुलूस सामने से आता देख आचार्य श्री तुलसी ने तत्काल निर्णय लेते हुए रास्ता छोड़ दिया। अघटित घटनाटल गर्इ। हालांकि लोगों में खलबली मची। हम क्यों हटें? आवाजें आर्इ। पर साहस के पुजारी ने शांति स्थापित करने हेतु रांगड़ी-चौक की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये। सभी ने अनुसरण किया। तत्कालीन बीकानेर के महाराजा गंगासिंह आचार्य श्री की प्रत्युत्पन्न मेधा एवं निर्णायक क्षमता के सम्मुख नत हो गये। तभी तो कवि का स्वर मुखर हो उठा-
'डर की क्या बात पथिक काली रातों में,
पथ में उजियाला होगा लो दीपक हाथों में।
दुनियां के दीपक धोखा दे सकते हैं मगर,
साहस का दीपक जलता है झंझावातों में।
अणुव्रत-अनुशास्ता का अधिकतम जीवन संघर्षों से भरा रोमांचित रहा। सत्य का दामन हो जिसके साथ में, भला विरोध, निराशा और कठिनार्इयां उसका बिगाड़ भी क्या सकते हैं? यही कारण था कि भय और शंका उस अमृत पुरुष के सम्मुख ठहर नहीं पाये। बिना साहस के छोटी सी यात्रा भी दुरुह प्रतीत होती है, जबकि गणाधिपति गुरूदेव तुलसी ने अपने जीवन के 83 बसंत को जीवंत जीया। प्रस्तुत उदाहरण कमजोेर मानसिकता में छिपा भय का निदर्शन करता है। एक वृद्ध महिला पहली दफा हवार्इ-यात्रा हेतु एयरपोर्ट पहुँची। जहाज पर चढ़ी। वह घबरा रही थी, काँप रही थी। एयरहोस्टेज ने उसकी मन:सिथति को पढ़ा और बुढि़या के भय को दूर करने के लिए उसके पास बैठ गर्इ। उसका सिर अपने ह्रदय से तब तक लगाये रखा, जब तक जहाज पूरी तरह से ऊपर न उठ गया। धक्के आने बंद हो गये। इंजन संगीतमय ध्वनी से चलने लगा। तब एयरहोस्टेज उठी। मजे की बात यह है कि डरपोक बुढि़या ने जाते वक्त उसे कहा- बेटी! ज्ब तुम्हें फिर से डर लगे, तो वापिस मेरे पास आ जाना। एयरहोस्टेज बुढि़या की नादानी पर मुस्कुरा दी। बहुत फर्क है साहसी बताने और साहसी होने में। गुरुदेव तुलसी का जीवन साहस का प्रतिमास नहीं, प्रत्युत देदीप्यमान सूर्य था।
                     विलक्षण व्यकितत्व व दृषिटकोण की व्यापकता ने उन्हें शिखर पर पहुँचा दिया। विरोधों की आंधियों में साहस का दीप जलता रहा। गहन अन्तर दर्शन ने उनके विश्वास को खंडित नहीं होने दिया। साहस के बिना विकास का प्रकाश धूमिल हो सकता था, लेकिन आत्म-निरिक्षण एवं आत्मालोचन जैसी इमरजेंसी लार्इटों की उनके पास भरमार थी। फलस्वरुप नर्इ संभावनाओं को पनपने का अवसर बहुत मिला। बात उन दिनों की है, जब आचार्य तुलसी पैदल यात्रा के दौरान इलाहबाद में प्रवचन कर रहे थे। जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने जाति-पांति के उस युग में संतों की भिक्षा-विधि की चर्चा करते हुए कहा- यदि हमें किसी भी जाति के घर में शुद्ध भिक्षा मिले, हम ले सकते हैं। दिगम्बर आम्नाय के न्यायाचार्य महेन्द्र जैन, जो उस परिषद में बैठे प्रवचन सुन रहे थे, उन्होंने कहा- आचार्य जी। आज मैं जिंदगी में पहली दफा किसी जैन आचार्य को नमस्कार करता हंू। ऐसी प्रस्तुति देने का साहस सचमुच महानता का प्रतीक है।
               सन 1959 कोलकाता में आचार्य श्री तुलसी ने अपने प्रौढ़ चिंतन से सामाजिक बुुरार्इयों के खिलाफ बीड़ा उठाया। बाल-विवाह, अस्पृश्यता निवारण, दहेज प्रथा, वृद्ध-विवाह जैसी ज्वलंत समस्याओं को रोकने की अनिवार्यता समझ उन्होंनें कहा था - ''अवरोध चाहे कितने भी आये, हम डरेंगे नहीं। एक बार अस्पृश्य निवारण करने के लिए हरिजन सम्मेलन का वृहद आयोजन आचार्य तुलसी के सानिनध्य में रखा गया। अधूतों  के प्रति विरोध की उछलती स्फुलिंगों ने उन्हें झकझोर दिया। जन-चेतना को उस समय सम्बोधित करते हुए आचार्य तुलसी ने कहा था - ''यदि मुझे ठहराना है। मेरा प्रवचन करवाना है तो हर कौम के आदमी को आने की, प्रवचन सुनने की छूट रहेगी। अन्यथा मैं प्रवचन नहीं करुंगा। यह बात सुन जनता स्तब्ध रह गर्इ। प्रखर चिंतन एवं साहस की प्रचुरता ही थी कि बिना परवाह किये उन्होंने अपने पाँव(चरण) हरिजन भार्इयों को स्पर्श करने के लिए आगे कर दिये। सभी हरिजनों ने धन्यता का अनुभव किया। लोग देखते ही रह गये।
                     वि. स. 2007 में संघ-बद्ध साधना करते हुए आचार्य तुलसी ने नवीनता और प्राचीनता के बीच सामंजस्य स्थापित हो, इसके लिए अनेक निर्णयों को क्रियानिवत किया। परिणामत: आन्तरिक विरोध चरम पर पहुँच गया। इतना कुछ होने पर भी उन्होंने अपने कार्यक्रमों को निर्धारित रख कार्यों को संपादित किया। उस प्रसंग में गुरुदेव तुलसी के शब्द निम्न रुप से मुखर हुए- ''यदि हममें साहस नहीं होता, तो निर्धारित कार्य स्थगित हो जाते। मैं कभी चिंता नहीं करता, क्योंकि भगवान महावीर का अनेकांत दर्शन मेरे साथ हैं। आचार्य तुलसी के पुरुषार्थ और भगीरथ चिंतन ने तेरापंथ संघ में ऐसे क्षितिज खोले जिससे जैन धर्म को नर्इ पहचान दी। पूरी तटस्थता से जैन आगमों के सम्पादन का साहसिक व एतिहासिक निर्णय लिया, जो युग का अमिट आलेख बन गया। विलक्षण दीक्षा समण श्रेणी का उदभव कर जैन धर्म को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दी। मौलिकता को अक्षुण्ण रखते हुए अनेक नर्इ रेखाओं का निमार्ण किया।
                     भारत सरकार में उत्पन्न संसदीय गतिरोध को समाप्त करने में आचार्य तुलसी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। राजीव-लोंगोवाल के एतिहासिक पंजाब समझौते ने बहुत बड़ी हिंसा को टाल दिया था। यह सब उनके सामयिक-साहसिक चिंतन से ही फलीभूत हो सका था। रायपुर चातुर्मास के अवसर पर 'अगिन परीक्षा पुस्तक को लेकर हिंसामय वातावरण जोर पकड़ रहा था, इसे मद्देनजर रखते हुए आचार्य प्रवर ने देवउठनी ग्यारस को ही विहार करना पड़ा। पत्रकारों ने घेराव कर आचार्य श्री से पूछा - जैनो का चातुर्मास तो पूर्णिमा को समाप्त होता है, फिर ग्यारस को विहार क्यों? आचार्य तुलसी ने कहा - हम तो समन्वयवादी है! स्पष्ट और साहस भरे उत्तर को सुनकर सभी प्रभावित एवं नतमस्तक हो गये। जीवन का कोर्इ भी मोड़ ऐसा नही था, जिसमें साहस के पदचिन्ह दिखार्इ नहीं दिये। अनितम समय से पूर्व 18 फरवरी 1994 में आचार्य तुलसी ने स्वेच्छा से अपने आचार्य पद का विसर्जन कर नये इतिहास का सृजन किया। इस साहस भरी उदघोषणा से सारा विश्व विसिमत रह गया।
                     अस्तु! जीवन में उतार-चढ़ाव जैसी विषमताएं न आये, नामुमकिन है। लेकिन वैसे झंझावातों में साहस का दीया जल जाये, तो अंधेरा टिक नहीं सकता। संकल्प शकित एवं समर्पण बल के सामने लक्ष्य में कामयाबी अवश्य मिलती है। जिंदगी जिंदादिली बन सफलता दिलाएं, सब चाहते हैं। पर हकीकत कुछ ओर होती है! सकारात्मक विचारशैली, साहस, उत्साह और आत्मविश्वास ऊर्जा का वह स्रोत है, जो हर कदम पर विजय दिलाता है। आचार्य श्री तुलसी उपयर्ुक्त गुणों के दस्तावेज थे! जिनके हर कदम, हर वाक्य, हर गतिविधि में साहस प्रत्यक्ष दिखार्इ देता था। हर विचार पौरुष की कहानी गढ़ता था। तभी तो कहा है-
     ''हारे नहीं हौंसले, तो कम हुए फासलें।
     काम करने के लिए, मौसम नहीं मन चाहिये।।

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